आषाढ़ शुक्ल पक्ष की एकादशी को देवशयनी एकादशी कहते हैं। देवशयनी एकादशी के दिन से भगवान विष्णु का शयनकाल प्रारम्भ हो जाता है इसीलिए इसे देवशयनी एकादशी कहते हैं।
सतयुग की बात है कि माधांता नाम के चक्रवर्ती सम्राट हुआ करते थे, वह बहुत ही पुण्यात्मा, धर्मात्मा राजा थे, प्रजा भी उनके राज में सुखपूर्वक अपना गुजर-बसर कर रही थी, लेकिन एक बार क्या हुआ कि तीन साल तक लगातार उनके राज्य में आसमान से पानी की एक बूंद नहीं बरसी, खाली सावन आते रहे और धरती की दरारें बढ़ने लगीं। जनता भी भूखों मरने लगी, अब धर्म-कर्म की सुध किसे रहती अपना पेट पल जाये यही गनीमत थी। प्रजा राजा के पास अपना दुखड़ा लेकर जाने के सिवा और कहां जा सकती थी। राजा बेचारे पहले से ही दुखी थे, जनता के आने से उनका दुख और बढ़ गया। अब राजा को न रात को नींद न दिन में चैन हमेशा इसी परेशानी में रहते कि मुझसे ऐसा कौनसा अपराध हुआ जिसका दंड मेरी प्रजा को भोगना पड़ रहा है। राजा अपनी शंका लेकर वनों में ऋषि मुनियों के पास गया। चलते-चलते वह ऋषि अंगिरा (ब्रह्मा जी के पुत्र) के आश्रम में पंहुच गया। उन्हें दंडवत प्रणाम कर राजा ने अपनी शंका ऋषि के सामने प्रकट करते हुए अपने आने का उद्देश्य बताया। उस समय (सतयुग) में ज्ञान ग्रहण करने का अधिकार केवल ब्राह्मणों को ही होता था और अन्य वर्णों विशेषकर शूद्रों के लिये तो यह वर्जित था और इसे पाप माना जाता था। ऋषि कहने लगे राजन आपके शासन में एक शूद्र नियमों का उल्लंघन कर शास्त्र शिक्षा ग्रहण कर रहा है। इसी महापाप का खामियाज़ा तुम्हारी सारी प्रजा उठा रही है। प्रजा को इस विपदा से उबारने के लिये तुम्हें उसका वध करना होगा। लेकिन राजा का मन यह नहीं मान रहा था कि वह मात्र शिक्षा ग्रहण करने को ही अपराध मान लिया जाये उन्होंने कहे हे गुरुवर क्या कोई अन्य मार्ग नहीं है जिससे उस निरपराध की हत्या के पाप से मैं बच सकूं। तब अंगिरा ऋषि कहने लगे एक उपाय है राजन। तुम आषाढ़ मास की शुक्ल एकादशी के व्रत का विधिवत पालन करो तुम्हारे राज्य में खुशियां पुन: लौट आयेंगी। राजा वहां से लौट आया और आषाढ़ महीने की शुक्ल एकादशी आने पर व्रत का विधिवत पालन किया। राज्य में जोर की बारिश हुई और प्रजा फिर से धन-धान्य से निहाल हो गई।